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कविता

फर्क तुम तय करो

नीरजा हेमेंद्र


उन्होंने किया दुराचार
वो कई थे और वह अकेली
क्या उन्होंने जन्म नहीं लिया था
एक स्त्री के कोख से
क्या उन्हें किसी स्त्री ने अपनी गोद में नहीं खिलाया था
थक जाने पर नहीं बनाया था बाँहों का झूला
या दे कर थपकी, अपने कंधे पर नहीं सुलाया था
प्रश्न अनुत्तरित्...
वह माँ भी तो स्त्री ही थी
प्रेम और वासना के बीच खिंची उस रेखा को
रौंद कर पैरों तले तुमने
उठा लिया है एक प्लास्टिक का गिलास
जिसमें पानी पीना है
उस प्यास को बुझाने के लिए
तो कभी बुझती नहीं
पाशविकता से भरी तुम्हारी आँखें तलाश ही लेती हैं
एक गिलास प्लास्टिक का जिसमें
पानी पियोगे तुम, एक बार नहीं कई-कई बार
अंततः फेंक दोगे
माँ... स्त्री... या एक गिलास प्लास्टिक का...
फर्क तुम तय करो...।


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